आखिर क्या दुःखी हो तुम?

सर पकड़े से उखड़े-उखड़े , उलझे-उलझे रहते हो,
'बहुत दुःखी हूँ भाई मेरे' - रोज़ सभी से कहते हो।
आखिर क्या सच में दुःखी हो तुम ?


क्या दुखी हो इस बात से- कि किस्मत अच्छी  नहीं तुम्हारी।
काम कोई बनता नहीं या सैलरी अच्छी नहीं तुम्हारी।
क्या दुखी हो घरवालों से, रोज़ रोज़ के सवालों से
'कब शादी करोगे.... उम्र निकल  गयी तुम्हारी '
 उन बेफिज़ूल सवालों से।
रिश्तेदारों के तानों से,बात टालने  के बहानों  से।
आखिर क्या  दुःखी हो तुम ?


क्या दुःखी हो- इस रोज़- रोज़ की ट्रैफिक से, हॉर्न की आवाज़ों से?
 'फिर लेट हो गया यार !'- इस टेंशन से?
बॉस की चिक-चिक, अप्रैज़ल  की टेंशन या घटों ऑफिस के कामों  से ,
 मुँह लटकाये वापिस जाना ,
'कुछ नहीं होगा क्या होगा मेरा'-इस फ़्रस्ट्रेशन से।
आखिर क्या  दुःखी हो तुम ?


< अब ज़रा रियल लाइफ भी देख लें ..>कभी देखा है उन बच्चों को, जो लाचार अनाथ फिरते हैं।
ट्रैफिक लाइट पे भीख मांगते ,
 या ढाबों पे काम करते दिखते हैं।
देखा है उन अंधे ,लंगड़े लोगों को,
या उन अकेले फिरते बुज़ुर्गों  को ?
वो अँधेरी गंदी गलियां - जहां से तुम नाक चढ़ाते  निकलते हो।
वहीं वो लोग रहते खाते,अपनी दुनिया बुनते हैं।
गहरी सांस लो और फिर सोचो- आख़िर क्या सच में  दुःखी हो तुम ?


< अब आते  हैं  वो लोग। .... > जो भले अकेले और हैं तन्हा, फिर भी मुस्कुराते हैं।
कमिंयों और लाचारी को, अपनी ढाल बना करके,
बुलंद हौसलों से मेहनत करते हैं।
और वो बेटे-
जो घर बार छोड़, सरहद की रक्षा  करते हैं।
इक रोटी खा, शुक्र खुदा का करके, जो रोज़ फुटपाथ पे सोते हैं।
मैं कहानी उनकी  कहती हूँ, जो भले ही रोज़ सहते हैं ,
पर किस्मत का रोना छोड़-छाड़, हिम्मत से आगे बढ़ते  हैं।
अब फिर सोचो- आख़िर क्या सच में  दुःखी हो तुम?


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